कितनी कामयाब हुई नमामि गंगे?

गंगा के पानी को साफ करने वाली परियोजनाओं की एक लंबी श्रृंखला में सबसे नई पहल की शुरुआत 2014 में हुई थी। बनारस में इसके मिले-जुले नतीजे देखने को मिल रहे हैं।

एक 26 साल की महिला, जानकी देवी का जीवन उनके पति की रोजमर्रा की दिहाड़ी से चलता है। उत्तर प्रदेश के पवित्र शहर वाराणसी में गंगा की सहायक नदी, अस्सी के किनारे वह एक छोटे से घर में रहती है। घर में गंदे पानी की दुर्गंध है। बाहर, अस्सी नदी बह रही है जो काफी स्याह दिख रही है। इन लोगों के शौचालय के लिए अस्सी के ऊंचे तट पर एक अस्थायी व्यवस्था है। घरेलू सीवेज सीधे नदी में जाता है। वह कहती हैं, “मैं कूड़ा-कचरा और हर चीज नदी में फेंक देती हूं। और दूसरा विकल्प ही क्या है?”

अस्सी नदी के किनारे एक झोपड़ी के अंदर का दृश्य
जानकी देवी की तरह कई ऐसे लोग हैं जिनका निवास, इस तरह के अस्थायी घर और झोपड़ियां हैं। ये सब वाराणसी में गंगा की एक अन्य सहायक नदी अस्सी और वरुणा के तट पर स्थित हैं। आज, अस्सी और वरुणा का उपयोग सही मायनों में तो सीवेज नालों के रूप में किया जाता है, जो काले, बदबूदार कीचड़ को गंगा में ले जाते हैं।

बनारस के घाट
नमामि गंगे की मदद से गंगा नदी की सफाई भारत सरकार, 1985 में गंगा एक्शन प्लान से लेकर 2008 में राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन परियोजना शुरू होने के बाद से इस नदी को साफ करने की कोशिश कर रही है। इसको लेकर सबसे ताजा पहल 2014 में शुरू हुआ नमामि गंगे कार्यक्रम है।

अस्सी नदी वाराणसी में कचरे के लिए एक नाले की तरह काम करती है वाराणसी, 36 लाख की आबादी वाला शहर है। यह भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का निर्वाचन क्षेत्र भी है, जो 2014 से सत्ता में हैं। उन्होंने अपने शासन और नीतियों के माध्यम से स्वच्छ गंगा का वादा किया था। उनकी सरकार ने तुरंत अपना प्रमुख नमामि गंगे कार्यक्रम शुरू किया। नदी प्रदूषण को रोकने और संरक्षण व पुनर्जीवन प्रयासों को बढ़ावा देने के लिए एक “वैज्ञानिक” दृष्टिकोण के लिहाज से यह एक बेहद महत्वपूर्ण कार्यक्रम है।

भारतीय केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अनुसार, 1986 और 2014 के बीच गंगा की सफाई पर लगभग 200 अरब रुपये खर्च किए गए थे। 2014 के बाद से, 250 अरब रुपये और आवंटित किए गए हैं। अक्टूबर 2022 तक 130 अरब रुपये से अधिक खर्च किया जा चुका था। सरकार ने नदी की सफाई के लिए अत्यधिक तकनीकी दृष्टिकोण अपनाते हुए अपनी नीतियों में भी बदलाव किया है।

सरकार का दावा है कि परियोजना और प्रौद्योगिकी-प्रथम का दृष्टिकोण सफल रहा है, जहां पिछले प्रयास सफल नहीं हुए थे। जनवरी में, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि गंगा इतनी साफ है कि विदेशी राजनयिक इसमें स्नान कर रहे थे और डॉल्फिन फिर से दिखाई दे रही थीं।

हर साल लाखों तीर्थयात्री वाराणसी आते हैं
सामान्य ढंग से देखने पर, वाराणसी में, जहां लोग पूजा-पाठ और स्नान करते हैं, 2014 से पहले की तुलना में नदी साफ दिखाई दे रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि कचरा और तैरती गंदगी हटा दी गई है। स्थानीय लोगों ने द् थर्ड पोल को बताया कि जी 20 शिखर सम्मेलन से पहले नदी को साफ रखने के लिए सुबह से शाम तक एक मशीन चल रही थी।

पिछले साल भारतीय संसद को दिए गए एक जवाब में, जल शक्ति मंत्रालय, जो पानी से संबंधित विषयों को देखता है, ने कहा कि 2018 और 2021 के बीच, नदी की स्थिति में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। मंत्रालय की तरफ से कहा गया, “गंगा नदी का कोई भी हिस्सा [जहां नदी के किनारे प्रदूषण के स्तरों का परीक्षण किया गया] प्राथमिकता श्रेणी I से IV में नहीं हैं। और केवल दो हिस्से प्राथमिकता श्रेणी V में हैं।” श्रेणी I इंगित करती है कि पानी ‘गंभीर रूप से प्रदूषित’ है, जबकि श्रेणी V उस पानी को दर्शाती है जो ‘स्नान के लिए उपयुक्त’ है। वैसे मंत्री ने जिस सीपीसीबी रिपोर्ट का हवाला दिया, उसमें इसका जिक्र नहीं था।

वाराणसी में गंगा के किनारे अंतिम संस्कार हो रहा है हालांकि, यह स्पष्ट है कि कचरा अभी भी गंगा में डाला जा रहा है। उद्योग, नदी के माध्यम से रसायनों और भारी धातुओं का निपटान जारी रखे हुए हैं, जबकि घर, अपने रसोई और शौचालय के कचरे को इस नदी में मिलाते रहते हैं। गंगा के अधिकांश प्रदूषण के पीछे घरेलू सीवेज है। वाराणसी में, दाह संस्कार होते रहते हैं और तैरती हुई लाशें अक्सर दिखाई दे जाती हैं।

नई तकनीक से सीवेज का उपचार
भारत सरकार ने नमामि गंगे को एक “वैज्ञानिक कार्यक्रम” करार दिया है जो दुनिया की सबसे प्रदूषित नदियों में से एक को साफ करने के लिए अत्याधुनिक तकनीक का उपयोग करता है। यह कार्यक्रम, गंगा नदी बेसिन प्रबंधन योजना (जीआरबीएमपी) का हिस्सा है, जिसे आईआईटी कानपुर के नेतृत्व में सात भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) विश्वविद्यालयों के एक संघ द्वारा तैयार किया गया है। योजना का लक्ष्य गंगा के पानी को पीने के लिए नहीं तो कम से कम नहाने के लायक बनाना है।

अकेले गंगा के लिए 2015 और 2021 के बीच 815 नए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) बनाए गए या प्रस्तावित किए गए। यह आंकड़ा 2015 में परिचालन में मौजूद एसटीपी की संख्या से दोगुना है। वाराणसी में सात एसटीपी हैं, जिनमें से चार नमामि गंगे कार्यक्रम के तहत 2014 से बनाए गए हैं।

सहायक नदी अस्सी का कचरा गंगा में गिरता है
भारत के एसटीपी में इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक पानी से अकार्बनिक या जहरीले यौगिकों को हटाने के लिए बायोरेमेडिएशन का उपयोग करती है। बायोरेमेडियल प्रक्रियाएं जानवरों के अपशिष्ट और कूड़े जैसे पानी के दूषित पदार्थों को खाने के लिए सूक्ष्मजीवों यानी माइक्रोब को लगा देती हैं।
ये सूक्ष्मजीव टूट जाते हैं और इन दूषित पदार्थों को नाइट्रोजन, कार्बन और फास्फोरस जैसे प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले कार्बनिक घटकों में बदल देते हैं।

जीआरबीएमपी में पर्यावरण गुणवत्ता और प्रदूषण समूह के अबसार अहमद काजमी ने द् थर्ड पोल को बताया कि भारत के अधिकांश एसटीपी, सीक्वेंस बैच रिएक्टर (एसबीआर) का उपयोग करते हैं। वह बताते हैं, “अभी हमारे पास सबसे अच्छी तकनीक है।”

काजमी के अनुसार, एसबीआर “पूरी तरह से स्वचालित” हैं और इसके लिए सीमित स्थान और बिजली की आवश्यकता होती है। एसबीआर जैसी बायोरेमेडिएशन तकनीकों में पानी को 12-36 घंटों तक खुले गड्ढे में रखना शामिल है। इस समय के दौरान, सूक्ष्मजीव प्रदूषकों को खाते हैं, अपशिष्ट जमा हो जाते हैं और पानी वापस नदी में छोड़ दिया जाता है, या पुन: उपयोग किया जाता है।

बहुत अधिक पानी को ट्रीट करने की ज़रूरत है
लेकिन जब द् थर्ड पोल ने वाराणसी के एक एसटीपी के मुख्य अभियंता से बात की – जो यह चाहते थे कि उनका नाम न प्रकाशित किया – तो उन्होंने कहा कि गंगा का पानी एसटीपी में अधिकतम तीन घंटे के लिए ही रखा जाता है। उन्होंने एक कारक के रूप में “इस संयंत्र में आने वाले सीवेज की भारी मात्रा” की ओर इशारा करते हुए कहा कि पानी को लंबे समय तक उपचारित नहीं किया जा सकता है, क्योंकि बहुत अधिक पानी को ट्रीट यानी उपचारित करने आवश्यकता है।

वाराणसी में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स
एक एसटीपी के रिकॉर्ड की जांच द् थर्ड पोल द्वारा की गई। इससे पता चला कि वैसे तो एसटीपी, बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी), केमिकल ऑक्सीजन डिमांड (सीओडी) और घुलित ऑक्सीजन (डीओ) जैसे पानी के मापदंडों की गिनती रखते हैं, लेकिन फीकल कोलीफॉर्म बैक्टीरिया या भारी धातुओं जैसे अन्य प्रदूषकों का रिकॉर्ड नहीं रखते हैं। फीकल कोलीफॉर्म बैक्टीरिया और भारी धातुएं मनुष्यों में जानलेवा बीमारियों का कारण बन सकती हैं।

5 मई 2023 को नदी के आठ बिंदुओं और 24 जून 2023 को सात बिंदुओं के पानी के स्वतंत्र मूल्यांकन में, संकट मोचन फाउंडेशन – 1982 में स्थापित एक गैर-सरकारी संगठन – ने पाया कि फीकल कोलीफॉर्म बैक्टीरिया का स्तर प्रति 100 मिलीलीटर 500 की स्वीकार्य सीमा से 10 लाख गुना अधिक था।

अधिकांश बिंदुओं पर डीओ दर 7 (मिलीग्राम/लीटर) की सीमा के करीब थी, लेकिन बीओडी, जो जलीय जीवन के लिए बुनियादी स्वास्थ्य को परिभाषित करता है, अधिकांश बिंदुओं पर 3 मिलीग्राम/लीटर से अधिक था। बीओडी जितना अधिक होगा, नदी में कार्बनिक पदार्थ (नदी में अपशिष्ट और प्रदूषक) को तोड़ने के लिए डीकंपोजर को उतनी ही अधिक ऑक्सीजन की आवश्यकता होगी और जलीय जीवन के लिए कम ऑक्सीजन उपलब्ध होगी।

विश्लेषण से काफी कमियां सामने आईं
संकट मोचन फाउंडेशन ने अपने विश्लेषण में पाया कि अस्सी से नमो घाट तक लगभग 5 किलोमीटर की दूरी से लिए गए गंगा जल के नमूने सरकारी लक्ष्यों से मेल नहीं खाते। एनजीओ ने कहा कि सुधार करने के बजाय वाराणसी में गंगा के विस्तार में पानी की गुणवत्ता लगातार खराब होती जा रही है।

टूटे घर के अवशेष नदी में कूड़े के रूप में मिल गए
2020 तक, रमना एसटीपी चालू होने से पहले, वाराणसी में लगभग 102 एमएलडी (मिलियन लीटर्स पर डे) सीवेज का उपचार किया जा रहा था, हालांकि शहर में लगभग 400 एमएलडी उत्पन्न होता था। 2018 में रमना में बने एसटीपी की क्षमता 50 एमएलडी सीवेज ट्रीटमेंट की थी, जबकि वास्तविक जरूरत 130 एमएलडी सीवेज की थी।

आईआईटी, वाराणसी में इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियरिंग के प्रोफेसर और संकट मोचन फाउंडेशन के अध्यक्ष विश्वंभर नाथ मिश्रा के अनुसार, मुद्दा केवल क्षमता का नहीं है, बल्कि प्रौद्योगिकी का भी है। वह द् थर्ड पोल को बताते हैं: “हमने [2010 में] एक डीपीआर (विस्तृत परियोजना रिपोर्ट) प्रस्तुत की और सरकार से अनुरोध किया कि हमें एआईडब्ल्यूपीएस तकनीक के साथ एक एसटीपी संयंत्र बनाने की अनुमति दी जाए।”

एआईडब्ल्यूपीएस, यानी एडवांस्ड इंटीग्रेटेड वेस्टवाटर पॉन्ड सिस्टम्स, एक ऐसी तकनीक है जो फीकल कोलीफॉर्म बैक्टीरिया यानी मल में पाई जाने वाली बैक्टीरिया का ट्रीटमेंट करती है ताकि इसके परिणामस्वरूप अपशिष्ट जल का उपयोग सिंचाई उद्देश्यों के लिए भी किया जा सके।

इसके बजाय, 2017 में, एसटीपी का ठेका एस्सेल इंफ्रास्ट्रक्चर को 1.5 अरब रुपये की लागत पर दिया गया था। यह लागत सरकार द्वारा वहन की गई थी। इसका उद्घाटन खुद प्रधानमंत्री ने किया था। एस्सेल के पास सीवेज ट्रीटमेंट में काम करने का कोई रिकॉर्ड नहीं है, लेकिन यह कई मीडिया चैनलों का मालिक है, और इसके अध्यक्ष, सुभाष चंद्रा, भारतीय जनता पार्टी के सदस्य के रूप में – भारतीय संसद के ऊपरी सदन – राज्यसभा में हैं। 2018 में राम नगर एसटीपी का एक और ठेका एस्सेल ग्रुप को दिया गया।

“वित्तीय प्रबंधन, प्लानिंग, कार्यान्वयन और निगरानी में कमियां”
आईआईटी दिल्ली के काजमी का दावा है कि मिश्रा द्वारा वकालत की गई एआईडब्ल्यूपीएस के विपरीत, मौजूदा प्रौद्योगिकियां “बहुत कुशलता से काम कर रही हैं और एसटीपी ठीक काम कर रहे हैं।” हालांकि, सीपीसीबी के रिकॉर्ड बताते हैं कि वाराणसी के सात एसटीपी में से चार में प्रदूषण का स्तर बोर्ड के “मानकों का अनुपालन नहीं कर रहा है।”

आईआईटी, वाराणसी के पूर्व प्रोफेसर यू.के. चौधरी, जिन्हें सरकार ने 2021 में वाराणसी में गंगा की सहायक नदियों पर चर्चा के लिए नियुक्त किया था, ने एसटीपी को “पूरी तरह से बेकार” कहा। चौधरी ने गंगा के शैवाल विकास, काले, गंदे और बदबूदार पानी के लिए एसटीपी को जिम्मेदार ठहराया और सरकार की योजनाओं को “फर्जी” बताया।

बारिश के पानी के साथ सीवेज वाटर को ले जाने की स्थिति आती है तब ट्रीटमेंट प्लांट्स यह भार नहीं उठा सकते हैं।
वाराणसी में एक सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट के चीफ इंजीनियर देश की स्वायत्त ऑडिटिंग एजेंसी, भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक यानी कैग की 2017 से नमामि गंगे परियोजना की सबसे हालिया ऑडिट रिपोर्ट में कहा गया है, “वित्तीय प्रबंधन, प्लानिंग, कार्यान्वयन और निगरानी में कमियां रहीं, जिसके कारण इस कार्यक्रम के तहत मील के पत्थर वाली उपलब्धि में देरी हुई।”

इसके अलावा, उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (यूपीपीसीबी) पर आरोप लगा है कि उसने गंगा में पानी की गुणवत्ता मापने के लिए अवैज्ञानिक तरीकों का उपयोग किया और विवादास्पद तैयार की।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2022 के एक आदेश में इसकी मॉनिटरिंग के लिए यूपीपीसीबी की आलोचना की गई है। इसमें पाया गया कि यूपीपीसीबी द्वारा प्रस्तुत रिपोर्टों में आईआईटी वाराणसी और पास ही स्थित बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) की तुलना में एक ही स्थान पर नमूने लेने से “परिणामों में भिन्नता” पाई गई।

क्या गंगा कभी साफ़ होगी?
दरअसल, एक साथ दो समस्याएं हैं। दोनों ही इस तथ्य से जुड़े हैं कि भारत में जून और सितंबर के बीच मानसून के चार महीनों में ही 80 फीसदी वर्षा होती है, जिसे एसटीपी पर ध्यान केंद्रित करने से हल नहीं किया जा सकेगा। मानसून के दौरान, नदियां पूरे उफान पर होती हैं, और ट्रीटमेंट प्लांट्स में भारी मात्रा में पानी आ जाता है। दीनापुर के ग्रामीणों ने द् थर्ड पोल को बताया कि मानसून के दौरान, पानी को बिना ट्रीट के ही बहने दिया जाता है। चीफ इंजीनियर ने द् थर्ड पोल के साथ बातचीत में स्वीकार किया कि उनको प्लांट को बंद करने का आदेश दिया गया। उन्होंने यह भी बताया कि बारिश के पानी के साथ सीवेज वाटर को ले जाने की स्थिति आती है तब ट्रीटमेंट प्लांट्स यह भार नहीं उठा सकते हैं।

लेकिन साल के बाकी आठ महीनों में, नदी में पानी की मात्रा कम हो जाती है, जिसका अर्थ है कि प्रदूषण को घुलने के लिए पानी कम हो जाता है, जिससे प्रदूषण की सघनता बढ़ जाती है। मिश्रा कहते हैं, सरकार के लिए चुनौती बिना बरसात वाले मौसम में इन स्थलों पर प्रदूषण को नियंत्रित करना है। उस समय नदी का प्रवाह धीमा होता है और ऐसे में जब नदी में गंदगी पड़ती है तो तेज रफ्तार से उसका बहाव नहीं हो पाता है। उन्होंने कहा, इन क्षेत्रों से परे, उग्र और विशाल नदी होने के अपने प्राकृतिक गुणों के कारण अन्य स्थानों पर यह नदी अधिक स्वच्छ है।

यह एक विरोधाभासी स्थिति पैदा करता है, जहां एसटीपी जलप्लावित हो सकते हैं और प्रदूषकों की उच्च सांद्रता से निपटने के लिए संघर्ष कर सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय में वकील और पर्यावरण कानून फर्म एनवायरो लीगल डिफेंस फर्म के संस्थापक संजय उपाध्याय ने कहा कि सरकार को और अधिक इनोवेटिव होने की जरूरत है। उन्होंने कहा, “हमने स्वच्छ नदी को लेकर सारी चर्चा को एसटीपी और ईटीपी में सीमित कर दिया है। अन्य समाधानों, अन्य सुधारात्मक उपायों, प्रदूषण स्रोतों पर गौर करने के लिहाज से मैनेजमेंट पर्याप्त इनोवेटिव नहीं है।”

उपाध्याय का कहना है कि प्रदूषण के अंतिम स्रोत के रूप में, जिसे साफ करने की जरूरत है, नदी पर फोकस करना, मददगार नहीं है। गंगा की सहायक नदियों को प्रदूषित करने वाले जो उद्योग बंद हो गए थे, उन्हें फिर से खोलने की अनुमति दी गई है, या अवैध रूप से चल रहे हैं, इससे यह पता चलता है कि भारतीय राज्य प्रदूषण के स्रोतों पर कितनी बेतरतीब ढंग से फोकस करता है।

बांधों, नदियों और लोगों पर दक्षिण एशिया नेटवर्क के एक समन्वयक, जल विशेषज्ञ हिमांशु ठक्कर का कहना है कि 1980 के दशक में गंगा को साफ करने की पिछली परियोजनाओं के बाद से बहुत कम बदलाव आया है, जो अपने लक्ष्यों को पूरा करने में भी विफल रहीं। वह कहते हैं, “पर्यटन विस्तार, नेविगेशन, रिवरफ्रंट विकास, बांध निर्माण और राजमार्ग [जिन्हें वर्तमान सरकार ने अपनी नमामि गंगे पहल के साथ आगे बढ़ाया है] ने नदी की स्थिति खराब कर दी है।”

फिलहाल, भारत सरकार का मानना है कि अधिक एसटीपी स्थापित करना ही इसका समाधान है। वैसे ठक्कर के अनुसार, बड़े केंद्रीकृत एसटीपी स्थापित करने का मतलब साफ है कि सब कुछ पहले की तरह ही चल रहा है। सीपीसीबी और यूपीपीसीबी ने स्पष्टीकरण के लिए द् थर्ड पोल के अनुरोधों का जवाब नहीं दिया। इस स्टोरी की रिपोर्टिंग को अंतर्राष्ट्रीय महिला मीडिया फाउंडेशन ने सपोर्ट दिया है।

साभार- www.thethirdpole.net